tag:blogger.com,1999:blog-1321202024732950279.post7517843510295683319..comments2023-08-12T13:08:34.304+05:30Comments on दन्तेवाड़ा वाणी: आदिवासी इलाकों के शहरीHimanshu Kumarhttp://www.blogger.com/profile/06783793504254593279noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-1321202024732950279.post-57961307046131795752012-01-26T01:37:00.453+05:302012-01-26T01:37:00.453+05:30लूट पर तो शहर जिंदा हैं !
... ... बस इतना काफी ह...लूट पर तो शहर जिंदा हैं ! <br /><br />... ... बस इतना काफी है!चंदन कुमार मिश्रhttps://www.blogger.com/profile/17165389929626807075noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1321202024732950279.post-37961270482187346282012-01-18T10:14:44.311+05:302012-01-18T10:14:44.311+05:30हिमांशुजी यह शहरी वर्ग यदि आदिवासियों के सवालो की ...हिमांशुजी यह शहरी वर्ग यदि आदिवासियों के सवालो की और ध्यान नहीं देता तो कोई बात नहीं, हमें अपने काम करते रहना है. आज देशभक्ति का पैमाना तिरंगा हाथ में लेकर वन्दे मातरम कहने से है. मुझे यह समझ नहीं आता की जिन लोगो को आज भी मूलभूत आवश्यकताएं नसीब नहीं हुए वो कैसे मेरा भारत महँ कहें. एक सचिन तेंदुलकर, अमिताभ बच्चन या कल्पना चावला होने से तो हमारे लोगो का मानव विकास सूचकांक नहीं बढ़ जाता. आज की हुकूमते मीडिया के जरिये लोगो को दिग्भ्रमित कर रही हैं और उसके जरिये व्यक्तिगत उपलब्धियों को देश के उप्लाब्दिह्याँ बता कर पूरे बहस को बदल रहे हैं. जैसे विदेशों में रहने वाले भारतीये मूल के लोग वहां पैसा कमाने गए लेकिन आज हम उनको देश की शान कहते है और सर्कार उनको छूट देने के लिए तैयार है. इसी तरह जो लोग वोट नहीं देते वो हमारे लोकतंत्र को नियंत्रण कर रहे हैं. <br /><br />हकीकत यह है हिमांशुजी की शहरों का यह संभ्रांत वर्ग बहुत शातिर है और घोर जातिवाद से ग्रस्त है. यह गांव के अभिजात्य वर्ग का ही एक्सटेंसन है और जाति और वर्ग के सर्वोच्चता को बनाये रखना चाहता है. यही वर्ग आदिवासियों का नेतृत्व भी करना चाहता है ताकि उसके प्रश्नों पर अपने चश्मे का नजरिया चढ़ा के प्रस्तुत किया जा सके. आप जानते होंगे किस तरीके से मंडल के धूर विरोधी लोग नर्मद्दा के आन्दोलन में स्वैच्छिक शरीक हो गए. यह इसलिए होता है के मंडल की ताकतों ने समझ लिया की जब तक अपना इतिहास और अपने संस्कृति को स्वयं दोबारा से नहीं लिखेंगे यथास्तिथिवादी ताकते उनको समाप्त कर देंगी. इसलिए यह आवश्यक है के आदिवासी स्वयं का नेतृत्व करे. हमने देखा की आदिवासी सभी के प्रयोगस्थल बन गए. सरकारी कंपनिया, हिंदुत्व की शक्तिया, ईसाई मिसोनारियां और बाद में माओवादी के नाम पर भी आदिवासी केवल हनुमान बने रहे. हम लोगो ने उनका नेतृत्व विकसित नहीं होने दिया. इसलिए सामाजिक काम के लिए आदिवासी इलाको में 'टूरिस्म' करके आना शहरी सम्ब्रांत वर्ग का हिस्सा बन गया. आदिवासी संस्कृति के नाम पर उनके शोसन को सही कहने वालो की कमी नहीं थी जो नहीं चाहते के उनके बच्चे भी स्कूल जाएँ और उनको भी अच्चा स्वस्थ्य मिले. लालची उद्योगपतियों ने विकास ने नाम पर उनका दोहन किया और सारे जंगल और जमीन लूट लिए. सरकार केवल बिचौलिए की भूमिका में रही और उसका काम इन उद्योगपतियों को साड़ी सुविधाएँ मुहैया करने में थी चाहे उसके लिए इन आदिवासियों की जान भी क्यों न चली जाये.<br /><br />अतः ऐसे में जब हिमांशु जैसे लोग अपना जीवन दांव पे लगा कर आदिवासियों में नयी चेतना भरते हैं और उन्हें नयी आवाज़ देते हैं तो वो सत्ता के दलालों को कैसे पसंद आएगी. सत्ता के नशे में चूर ऐसे लोग अलग अलग खेल खेलते हैं. कही पर जाति का सवाल खड़ा करेंगे और कहीं पे नागरिकता का प्रश्न, लेकिन जब एक बार विचारो की क्रांति ने बात फैला दी तो इन सत्ताधारियों को अपने रस्ते बदलने पड़ेंगे. हिमांशुजी, मैं जानता हूँ, ऐसे काम में कितने दर्द छीपे होते हैं और जो दर्द आपके सीने में है वोह मेरे सीने मैं भी है और हमारे जैसे बहुत से लोगो के सीने मैं है. इसलिए जरुरत है इसको पहचानाने की और लगातार इस प्रकार की ताकतों को मजबूत करने की. सरकारे चाहे कुच्छ करें, लोगो की संस्कृति और उनके संशाधनो को लूटने का अधिकार उन्हें किसी ने नहीं दिया. मुझे उम्मीद है के आप अपने संषर्ष को जारी रखेंगे.. यह लड़ाई एक विचार की लड़ाई है और व्यवस्था की भी. लोकतंत्र को थोकतंत्र में तब्दील करने वाले लोगो को समय आने पर जनता जवाब दे देगी. मैं जानता हूँ की भारत की इस जनता में अपार संभावनाएं है वह सारे खेल जानती है और समय आने पर अपने प्रश्नों के उत्तर ढूंढ लेगी. हमारे जैसे लोग तो उत्प्रेरक हैं और उत्प्रेरक को अपनी भूमिका निभाते रहना चाहिए ताकि समाज में सकारात्मक बदलाव आ सके और हम एक सभ्य समाज कहलाने के काबिल बन सके जहाँ सबको अपने तरीके से जीने का अधिकार हो और जहा लूटेरे गिद्ध की दृष्टि लगाये गरीबो को खाने के तैयार न बैठे हों, जहाँ सरकार सबसे हासिये पे बैठे व्यक्ति की सुरक्षा कर सके और जहाँ अपनी अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता हो.. जहाँ धर्म के नाम पर लूट और गूंदागर्दी को देश और समाज वर्दास्त न करे.. इसलिए ऐसे समाज बनाने के लिए उत्प्रेरको को अपना काम करना पड़ेगा.. लड़ाई लम्बी है लेकिन असंभव नहीं है.<br /><br />विद्या भूषण रावतAnonymoushttps://www.blogger.com/profile/09284404914723120970noreply@blogger.com