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Wednesday, September 7, 2011

क्या न्याय की अवमानना की जा सकती है परन्तु न्यायाधीशों की नहीं ?

हमारे देश में यदि कोई व्यक्ति किसी जज के के फैसले या आचरण के खिलाफ यदि अपनी जुबां खोलता है तो है तो उस व्यक्ति को न्यायालय की अवमानना के जुर्म में सज़ा हो सकती है. किसी भी समाज में तभी तक शांति रह सकती है जब तक सब यह महसूस करते हैं कि उनके साथ अन्याय नहीं हो रहा है और यदि हमारे साथ कोई अन्याय होगा तो न्याय के लिए आवाज़ उठाने पर उसकी सुनवाई होगी. लेकिन जब समाज में ये व्यवस्था टूटने लगती है तो समाज भी टूटने लगता है , क्यों की फिर न्याय के लिए लोग फिर अपने तरीकों से लड़ने लगते हैं. आज़ादी मिलने के बाद हमारा विश्वास राजनीतिक नेताओं पर से समाप्त हो गया, नौकरशाही विकास के काम को करने में ना सिर्फ नकारा साबित हुयी बल्कि विकास को रोकने वाली भी साबित हो गयी. धर्म का खोखलापन पहले ही उजागर हो गया था. ऐसे में इस देश के सामने आज़ादी के बाद देश के आम आदमी के लिए तय किये गए रोटी ,बराबरी और इज्ज़त के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कोई भी सहारा नहीं बचा .
हमारे देश में हम सब को अभी तक किसी भी तकलीफ के निवारण के लिए अदालतों पर आखिरी भरोसा बचा है , गाँव के गरीब आदमी से लेकर बड़े सामाजिक कार्यकर्ता तक अब किसी समस्या के समाधान के लिए किसी नेता या अधिकारी के पास न जाकर अदालत में गुहार करते हैं.
लेकिन चिंता का विषय अब ये है की अब अदालतें भी बाकी लोकतान्त्रिक संस्थाओं की तरह अपनी विश्वसनीयता बुरी तरह खो रही हैं , और इनकी इस दुर्गती से चिंतित होकर जब कोई व्यक्ति या संस्था समाज का ध्यान इस ओर खींचना चाहता है तो उसे इन अदालतों में बैठे हुए समस्त मानवीय कमजोरियों से भरे हुए लोग न्यालय की अवमानना की सज़ा का खौफ दिखा कर खामोश कर देते हैं.
मेरा कई वर्षों तक अदालतों से नज़दीकी सम्बन्ध रहा है, पाँच वर्ष तक उपभोक्ता फोरम का सदस्य रहा, तीन वर्ष लोक अदालत की सीनियर बेंच का मेम्बर रहा , और चार वर्ष विधिक सेवा प्राधिकरण का सदस्य रहा, इस दौरान जजों के मानसिक स्तर ,सोच और चारित्रिक स्तर के बारे मैं अच्छे से जानने का मौक़ा मिला. सारी बातें तो खोल कर नहीं बताऊंगा क्योंकी अश्लील लेखन से बचना चाहता हूँ . लेकिन मैं देखता था की ये जज लोग छोटी छोटी बातों जैसे घर जाते समय बस में बिना किराया दिए मुफ्त में सफ़र करने के लिए थानेदार को फोन करते थे , और वो सिपाही भेज कर जज साहब को सपरिवार बस में मुफ्त ले जाने के लिए बस के कंडेक्टर को धमकाने के लिए आता था. अब ऐसे में उसी थानेदार के खिलाफ उसी जज की अदालत में कोई कैसे न्याय पाने की उम्मीद कर सकता है.
जब हमारी संस्था की मदद से सलवा जुडूम द्वारा उजाड़े गए लिंगागिरी और बासागुडा गाँव को दुबारा बसाया जा रहा था , और जब आदिवासी आंध्र प्रदेश ओर जंगलों में अपने छिपे हुए स्थानों से बाहर आकर अपने उजड़े हुए गावों में अपने जला दिए घरों को दुबारा बना रहे थे तो उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं था. हमारा आदिवासी साथी कोपा और उसकी टीम संस्था की बस में दाल चावल तेल मसाले आलू प्याज आदि भर कर उन भूखे ग्रामीणों के लिए दंतेवाडा से बासागुडा लेकर जा रहे थे ( हांलाकी उन गाँव वालों को राहत पहुंचाना सरकार का काम था जिसके लिए सरकार को सुप्रीम कोर्ट का आदेश मिला हुआ था, खैर ) तो सलवा जुडूम और उनकी माई बाप पुलिस ने इस दाल चावल से भरी गाडी को रोक लिया और कहा की इस राशन का बिल दिखाओ तब गाडी को आगे जाने देंगे, कोपा ने कहा की हम ये सामग्री मुफ्त में बांटने के लिए ले जा रहे हैं , हम गाँव वालों को इसका बिल थोड़े ही देंगे . बिल हमारी संस्था के आफिस में है , आप ठहरिये मैं बिल भी लाकर दिखा देता हूँ, लेकिन पुलिस तो गाँव के दुबारा बसने को ही रोकना चाहती थी , इस लिए फटाफट पूरे राशन को गाडी समेत ज़ब्त कर के थाने में ले गए. ( और उधर गाँव में बच्चे, औरतें ,बूढ़े भूखे थे,) मैं बिल लेकर थाने पहुँचा , थानेदार ने कहा अब राशन और गाडी अदालत से छूटेगी , हम अदालत गए , जज साहब शराब पीकर अपने न्याय के आसन पर विराजमान थे , थानेदार साहब हमारे हमारे ही सामने बिना हिचक डायस पर पहुँच गए और जज के कान में फुसफुसाने लगे, जज ने चिल्ला कर थानेदार से कहा , "हाँ हाँ में इन लोगों को अच्छी तरह जानता हूँ ये सब नक्सलवादी लोग हैं , तुम चिंता मत करो", इसके बाद हम अपना वकील तलाश करने बार रूम में आ गए , हमारे साथ पूना से आयी हुयी एक महिला पत्रकार भी थी. जज साहब हमारे पीछे पीछे अपने आसन से उठ कर बार रूम में आ गए, सारे वकील जज साहब को देख कर खड़े हो गए . जज साहब एक कुर्सी पर बैठ गए और उस महिला पत्रकार को अपने साथ बैठने के लिए कहा वो बेचारी, पास में एक कुर्सी पर बैठ गयी. जज साहब ने अपनी जींस(जी हाँ जींस) में से पव्वा निकाला , दो घूँट मारे, और इजहारे मुहब्बत करने लगे कि मेरी बीबी एकदम गंवार है , मैं यहाँ अकेला रहता हूँ तुम मेरे घर चलो, महिला पत्रकार भी बहुत होशियार थी उसने कहा सर ,' मैंने आप जैसा इंसान नहीं देखा ये राशन की गाडी छोड़ दीजिये' , जज साहब ने तुरंत गाडी छोड़ने के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए और वो महिला पत्रकार फिर मिलने का वादा कर के राशन लेकर कोपा के साथ तुरंत गाँव वालों के पास पहुँच गयी.
कुछ और वाकयात छत्तीस गढ़ में आजकल की न्यायिक व्यवस्था की स्थिति पर . हांलाकी हम सब ये जानते हैं की जजों के माईनिंग कम्पनियों मैं शेयर के किस्से बहुत आम हैं तथा ये माईनिंग कंपनियों के मालिक जजों को अनेकों तरीकों से प्रभावित या दुष्प्रभावित कर सकते हैं . और दंतेवाड़ा में आदिवासियों का कत्लेआम इन्ही माईनिंग कम्पनीयों के लिए किया जा रहा है इसलिए जजों का रवैय्या आदिवासियों के खिलाफ ही रहा है . कुछ उदहारण देना चाहूंगा . दंतेवाड़ा जिले में एक गाँव नेन्द्रा है, इस गाँव को पुलिस और सलवा जुडूम ने तीन बार जलाया था , इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम आदिवासियों की शिकायतें सुनने दंतेवाडा गयी तो नेन्द्रा गाँव के लोग भी अपनी आपबीती सुनाने आये उन्हें न्याय तो आज तक नहीं मिला अलबत्ता १० जून २००८ को इन्होने अपना बयान दर्ज कराया और १६ जून २००८ यानी छः दिन के ही बाद उनका गाँव इसके बाद पुलिस नें चौथी बार फिर जला दिया. इसके बाद हमारी संस्था इस गाँव में डट गयी . एक मानव कवच का निर्माण किया गया , जिसमें २२ आदिवासी युवक युवतियां शामिल थे . और डेढ़ साल तक सब लोग वहां रहे . उस इलाके के गाँव वालों को बाज़ार नहीं जाने दिया जाता था. लोग भूख से मर रहे थे , औरतों के पास कपडे नहीं बचे थी , और वो चीथड़ों से अपना तन ढकने के लिए मजबूर थीं . इसलिए ये मानव कवच के सदस्य गाँव वालों को लेकर बाज़ार जाते थे. तीन साल से लोग खेती नहीं कर पा रहे थे क्यों की पुलिस आकर फसल जला देती थी. संस्था के मानव कवच वालों ने गाँव वालों के साथ साथ खेती फिर से शुरू की. उस गाँव से पिछले आठ महीने से चार लड़कियां गायब थीं. जिसमें से सलवा जुडूम कैंप के नेताओं के घर पर बंधक बना कर रक्खी गयी दो लड़कियों को तो हमारे कार्यकर्ता छुप कर मुक्त करा कर ले आये और उनके परिवारों को सौंप दिया (मेरे पास दोनों के फोटो मौजूद हैं में किस्से नहीं सुना रहा हूँ ) लेकिन दो लडकियां पुलिस वाले ले गए थे और उनका कुछ पता नहीं चल रहा था उनमे से एक लडकी के पिता को भी लडकी के साथ ले जाकर पिता की ह्त्या पुलिस ने कर दी थी . उनका परिवार हमसे उनकी बहनों को तलाश करने की प्रार्थना कर रहा था . हमने उनके भाइयों के प्रार्थना पत्र एस पी को भेजे . एस पी ने नौ माह तक कोई कार्यवाही नहीं की . अंत में हाई कोर्ट में हेबियस कार्पस दायर की गयी . नियमतः हेबियस कार्पस पर उसी दिन सुनवाई कर के पुलिस को नोटिस जाना चाहिए लेकिन छह महीने बाद जज ने लडकी के भाई के वकील को फटकारा की इस ने अपनी बहन के गुम होने की शिकायत इतनी देर से क्यों की, वकील ने बताया की साहब इसकी बहन का तो पुलिस ने ही अपहरण किया है और ये तो अपनी जान बचा कर जंगल में छुपा हुआ था . अपहरणकर्ता लोग तो थाने के मालिक बन कर बैठे हुए है ये डरा हुआ लड़का थाने कैसे जाता? अगर इस संस्था ने इस की मदद न की होती तो ये मामला तो कभी भी कोर्ट तक भी नहीं पहूंचता , और असली क़ानून तो एस पी ने तोडा है की शिकायत मिलने के बाद भी नौ महीने तक कोई कार्यवाही नहीं की . लेकिन जज साहब ने उस एस पी के खिलाफ कोई कमेन्ट भी नहीं किया. जज साहब ने कहा कि एसा कैसे हो सकता है की कोई आदमी थाने जाने से डरे, लडकी के भाई के वकील ने कहा की साहब दंतेवाड़ा में तो वकीलों को थाने में जाने पर थानेदार पीट देते हैं . उदहारण के लिए ये देखिये अलबन टोप्पो वकील साहब आपके सामने खड़े हैं इनको कोपा कुंजाम के साथ थाने जाने के अपने कानूनी अधिकार का इस्तेमाल करने पर एस पी के निर्देश पर रात भर थानेदार ने थाने में बंद कर के पीटा है , आप करेंगे कार्यवाही? इस पर जज साहब चुप रहे . एक सप्ताह के बाद पुलिस लडकी के भाई को उठा कर लाई . जान से ख़त्म करने की धमकी के बाद उसी जज के सामने पेश किया . उसके वकील ने जज के सामने बहुत आग्रह किया की इसे पुलिस उठा कर लाई है . आप इसे कम से कम ४८ घंटे के लिए पुलिस से अलग कर दें .और फिर लडकी के भाई का बयान दर्ज करें . लेकिन ,,,,,,,,,,,, जज साहब ने तुरंत बयान दर्ज करने का आदेश दिया . उसको कहना पडा की मेरी बहन का अपहरण हुआ ये सच है, मेरे बाप की ह्त्या हुई ये भी सच है ,लेकिन वो पुलिस ने नहीं की, किसने की में नहीं जानता. और जज ने तुरंत मामला खारिज कर दिया. अभी मुझे उसके भाई का फोन आया मैंने पूछा
एसा बयान क्यों दिया ? बोला एक बहन बची है, बूढ़ी मां है . मुझे भी मार देते तो उन्हें कौन पालता? इसलिए उन्होंने जो सिखाया मैंने बोल दिया. (शेष फिर )

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