6 नवंबर 2010
प्रिय विश्वरंजन जी,
यह पत्र मैं आपको बिलकुल स्थिर चित्त से और आपकी परिस्थिति को समझते हुए लिख रहा हूँ. इस पत्र को लिखते समय मेरे मन पर उत्तेजना, क्रोध अथवा हताशा की कोई छाया नहीं है.
इस पत्र को लिखने की प्रेरणा इसलिए हुई. सिंगाराम फ़र्ज़ी मुठभेड़़ को अदालत में ले जाने की सज़ा के तौर पर जब हमारा अठारह साल पुराना आश्रम सरकार द्वारा नष्ट कर दिया गया, उसके बाद किराए के मकान में हम आश्रम चला रहे थे. उसपर जनवरी २०१० में मेरे दंतेवाडा छोड़ने के बाद पुलिस ने मकान पर कब्ज़ा कर लिया था और अब एक महीने पहले ही आश्रम का बहुत सा सामान चोरी कर के और आश्रम परिसर में खड़े वाहनों का तोड़ फोड़ कर पुलिस वापिस चली गई. उसके बाद से दो आदिवासी महिलाएं व एक आदिवासी बूढ़ा वहां रह रहे हैं. आपकी पुलिस नियमित रूप से जाकर इन तीनों कार्यकर्ताओं को डरा रही है और घर के भीतर घुसकर मुझे ढूंढती है तथा महिला कार्यकर्ताओं से कहती है कि आधी रात को आकर हम फिर तलाशी लेंगे. इन कार्यकर्ताओं के अंगूठे के निशान कोरे क़ागज़ों पर आपके पुलिस कर्मियों ने जबरन लिए हैं. हमारी महिला कार्यकर्ताएं मुझसे पूछ रही हैं कि पुलिस उन्हें कोई नुक्सान तो नहीं पहुंचाएगी, और मैं धड़कते दिल से उन्हें जवाब देता हूँ "नहीं, तुमने कौनसी ग़लती की है जो पुलिस तुम्हें नुक्सान पहुंचाएगी, तुम तो आराम से रहो." पर मैं जानता हूँ कि मेरे आश्वासन बिल्कुल खोखले हैं.
सच तो यह है कि पुलिस आश्रम के मकान में रहने वाले इन तीनों कार्यकर्ताओं को कभी भी झूठे केस बनाकर, इन्हें नक्सली कमांडर घोषित करके जेल में डाल सकती है और बस फिर सब कुछ ख़त्म. बिल्कुल यही तो आपने कोपा कुंजाम के साथ किया था. पहले उसके घर जाकर उसको पीट कर डराने की कोशिश की. जब वह नहीं डरा तो उसे जेल में डाल दिया. कोपा कुंजाम जोश से भरा हुआ एक आदिवासी नौजवान है जो आठ वर्ष तक गायत्री मिशन का पूर्णकालिक धर्मप्रचारक रहा और जो गेरुए वस्त्र पहन कर अपने आदिवासी समाज में शराब आदि के विरुद्ध प्रचार करता था. जब वनवासी चेतना आश्रम ने उसके क्षेत्र में प्रचार करना शुरू किया तो कोपा ने महसूस किया कि इस संस्था कि सोच ज़्यादा आधुनिक व वैज्ञानिक है. इसके बाद कोपा हमारे साथ जुड़ गया और पिछले तेरह सालों में उसने महिलाओं और युवकों को संगठित करने का एक बड़ा काम किया. कोपा के प्रयत्नों से राशन की दुकानों पर चावल के घोटाले बंद होने लगे. शिक्षक, आंगनवाडी कार्यकर्ता, स्वास्थ्य विभाग के लोग गाँवों में जाने लगे, नरेगा (NREGA) में लोगों को पूरी मजदूरी दिलाई गई और कोपा के कार्यक्षेत्र में बच्चों की कुपोषण से मौतें रुकने लगीं.
लेकिन कोपा ने एक ग़लती कर दी. नरेगा के अंतर्गत सल्वा जुडूम कैम्पों में जबरन रखे गए आदिवासियों से भी काम करवाया जाता है और पूरे काम के बदले आधा पैसा दिया जाता है. आधे पैसे में सल्वा जुडूम के नेताओं और पुलिस की हिस्सेदारी होती है. आज भी होती है. कोपा इसके ख़िलाफ़ खड़ा हो गया और अनेकों जगह पूरी मजदूरी बांटनी पड़ी. यहीं से कोपा पुलिस की आँखों को खटकने लगा और उसे पुलिस ने "ह्त्या" का आरोप लगाकर एक साल से जेल में बंद किया हुआ है. मैं ने ऊपर जो बातें कहीं हैं, उसके पूरे प्रमाण मेरे पास मौजूद हैं और यदि आप सिद्ध करने की चुनौती दें, तो मैं सार्वजनिक तौर पर इन सब बातों को सच सिद्ध कर दूंगा.
मुझे याद आ रहा है कोपा ने अपने आदिवासी साथियों के साथ मिलकर तीस से अधिक गाँवों को दोबारा बसाया था. ये वो उजड़े हुए गाँव थे जिन्हें आपकी पुलिस और सल्वा जुडूम ने जलाकर महिलायों से बलात्कार कर निर्दोषों की ह्त्या कर उजाड़ दिया था. कोपा ने इन गाँवों में लोगों को जंगल से व आन्ध्र प्रदेश से वापस लाकर दोबारा बसाया, खेती शुरू करवाई और इन गाँवों में किसी को भी हथियार लेकर प्रवेश करने पर आम सहमती से रोक लगाई और वह इन सभी गाँवों को अहिंसक क्षेत्र बनाने की कोशिश कर रहा था. इन गाँवों में वह स्कूल, आंगनवाडी, राशन दुकान, पंचायत दोबारा शुरू कराने की कोशिश कर रहा था और आप ही ने उसे जेल में डाल दिया? आपको क्या हासिल हुआ? कोपा के जेल में जाने और मेरे दंतेवाडा छोड़ने के बाद वहां हिंसा और ज़्यादा बढ़ गई.
आप दावा करते हैं कि आप साहित्यकार हैं और चाहते भी हैं कि लोग आपको वैसा सम्मान भी दें. पर आपको नहीं लगता कि साहित्यकार होने की पहली शर्त सत्य को देख पाना, उसे महसूस करना और उसकी सुन्दर अभिव्यक्ति होती है? लेकिन प्रतिदिन-प्रतिक्षण झूठ गढ़ना, एवं उसका ही सदैव चिंतन करना? क्या इस तरह आपके ह्रदय से किसी कालजयी या लोकहितकारी साहित्य का सृजन संभव है? लोक की तो छोड़िए, आप स्वयं भी अपने लिखे से मुग्ध नहीं हो पाते होंगे क्योंकि आपका ह्रदय जानता है कि आपने जो लिखा है, वह असत्य व बनावटी मनःस्थिति की उपज है.
आपको स्मरण होगा पिछली बार मैं जब आपसे मिला था, वो सल्वा जुडूम की शुरूआती दौर था. मैंने आपसे तब कहा था, "विश्वरंजन जी, आप किसके लिए लड़ रहे हैं? देश के लिए या भ्रष्ट राजनेताओं के आर्थिक स्वार्थ के लिए?" मैंने यह भी कहा था कि पुलिस की यह नौकरी आपको संविधान और कानून की रक्षा के लिए दी गई है, और जिस दिन आप इस भ्रष्ट व लालची मुख्य मंत्री से कह देंगे कि, "मिस्टर चीफ़ मिनिस्टर, आदिवासिओं की ज़मीन लेने की क़ानूनी प्रक्रिया यह है, और अगर आपने इस क़ानून का उल्लंघन किया, तो मैं आपको उठाकर जेल में डाल दूंगा", और इस तरह जब पुलिस की बन्दूक ग़रीब के पक्ष में उठेगी, उस दिन नक्सलवाद स्वयं ही ग़ायब गो जाएगा. काश अभी भी आपको अपना कर्त्तव्य याद आ जाए.
विश्वरंजन जी, आपने एक लेख लिखा था कि पुलिस को मानवाधिकारकर्ता शूद्र मानते हैं, और अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं. लेकिन सच्चाई इससे ठीक उल्टी है. हमने कभी आपसे सम्बन्ध तोड़ने की कोशिश नहीं की. बल्कि अशांत क्षेत्रों में शान्ति स्थापना का काम करने के कारण लगभग सभी कार्यकर्ताओं को आपने झूठे इलज़ाम लगा कर या तो जेल में बंद कर दिया है, या उन्हें इलाक़ा छोड़ जाने के लिए मजबूर कर दिया.
आप दावा करते हैं कि आप एक महत्त्वपूर्ण लड़ाई लड़ रहे हैं. चलिए, हमने आपकी बात को सच माना. पर आपकी इस लड़ाई में आपके साथी कौन हैं? लालची नेता, भ्रष्ट अधिकारी, सब्ज़ी बेचने वालीं ग़रीब औरतों और स्टेशन पर फेंकी हुई बोतलें इकठ्ठा करने वाले बच्चों से भी रिश्वत वसूलने वाले आपके पुलिस वाले? कहीं आप इन सब को साथ लेकर नक्सलवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई जीतने का सपना तो नहीं देख रहे?
आपको वो घटना भी याद होगी जिसमें दंतेवाडा के ग्राम टेकनार की आंगनवाडी चलाने वाली आदिवासी महिलाओं का पैसा एक सरकारी अधिकारिणी खा जाती थी. और हमारी संस्था के कार्यकर्ता की मदद से जब उनहोंने इस लूट का विरोध किया, तो आपके एस. पी. ने मेरे ही ख़िलाफ़ एक झूठी ऍफ़. आई. आर. दर्ज कर दी. और पिछली मुलाक़ात में मैंने आपसे कहा था कि जो पुलिस दूधमुंहे बच्चों का राशन बेचने वालों के साथ मिली हुई है, वह कभी भी समाज से नक्सलवाद दूर नहीं कर पाएगी. ऐसा सपना भी मत देखिएगा.
मैं यह मानता हूँ कि हम जहाँ पैदा होते हैं, उस वातावरण और स्थिति के अनुसार चीज़ों को सही या ग़लत मानते हैं. जैसे अगर हम हिन्दुस्तान में पैदा हुए हैं, तो पाकिस्तान को ख़राब मानते हैं. इसी तरह मैं अगर उस घर में पैदा होता जहाँ आप पैदा हुए हैं, और आप मेरे घर में पैदा होते, तो हमारे दोनों के विचार आज के हमारे विचारों के ठीक उल्टे होते. इसलिए यदि सत्य को जानना हो, तो स्वयं को सामने वाले की परिस्थिति में रखकर भी सोचना चाहिए. यही सत्य की ओर हमारा पहला क़दम होता है. अब आप स्वयं को दंतेवाडा ज़िले के एक आदिवासी के घर में रखकर सोचिये कि तब वहाँ आपके विचार, पुलिस, सरकार, और नक्सलियों के बारे में क्या वही रहते, जो आज एक डी. जी. पी. के नाते हैं?
ख़ैर अभी आप इन बातों को नहीं मानेंगे. पर जब आप इस नौकरी पर नहीं रहेंगे, तब आपको सच्चाई बहुत परेशान करेगी. और तब आप पछताएंगे कि आपने सही काम करने का मौका रहते हुए अंतर्रात्मा
की आवाज़ को क्यों नहीं सुना और वो सब क्यों नहीं किया जो सचमुच ठीक था.
हिमाँशु कुमार
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