Tuesday, October 16, 2012
यह लेख किसी कम्युनिस्ट द्वारा नहीं लिखा गया है
जिस समाज में मेहनत करने वाले गरीब और कुर्सियां तोड़ने वाले अमीर हों ! जहां सफाई करने वाले छोटी ज़ात और गंदगी करने वाले बड़ी ज़ात के माने जाते हों !जहां सारी कमेरी कौमें छोटी ज़ात कह कर पुकारी जाती हों ! जहां शहरों में रहने वाले अमीर शहरी लोग अपने ही देश के गाँव में रहने वालों की ज़मीने छीनने के लिए अपनी फौजें भेज रहे हों ! उस समाज को कौन लोकतान्त्रिक मानेगा ?
करोड़ों मेहनत कशों को भूख और गरीबी में रख कर ! उनकी आवाज़ को पुलिस के बूटों तले दबा कर लाई गयी खामोशी को हम कब तक शांती मान सकते हैं ?
हमने इस देश की आज़ादी के वख्त वादा किया गया था की गाँव का विकास होगा ! गरीब की हालत सुधारी जायेगी ! लेकिन अगर उसी गाँव में आज़ादी के बाद विकास तो छोडिये हम अगर गाँव वालों की ज़मीने छीनने के लिए सिर्फ पुलिस को ही भेज रहे हैं तो लोग इस सरकार को किसकी सरकार मानेंगे ? लोग इसे किसकी आज़ादी मानेंगे ? अगर आजादी से पहले लन्दन के लिए गाँव को उजाड़ा जाता था और अब हमारे अपने शहरों के लिए हमारे ही गाँव पर हमारी अपनी ही पुलिस हमला कर रही हो तो गाँव वाले इसे आज़ादी मानेंगे क्या ?
हमने आज़ादी के बाद कौन सा विकास का काम बिना पुलिस के डंडे की मदद से किया है ? क्या डंडे के दम पर लाया गया विकास लोगों के द्वारा लाया गया विकास माना जा सकता है ?
यह कैसा विकास है ? किसके गले को दबा कर ? किसकी झोंपड़ी जला कर ? किसकी बेटी को नोच कर ? किसके बेटे को मार कर ? किसकी ज़मीन छीन कर ? यह विकास किया जा रहा है ? हमें लगता है की इस देश के करोड़ों लोग इस बात को स्वीकार कर लेंगे कि हमारे गाँव के हज़ारों लोगों को उजाड़ कर उनकी ज़मीने कुछ धनपतियों को दे देना ही विकास है ! क्या लोगों को यह पूछने का हक नहीं है की हमारी ज़मीन छीन लोगे तो हम कैसे जिंदा रहेंगे ?
कल को जब यही लोग गाँव से उजड़ कर मजदूरी करने शहर में आ जाते हैं तब हम यहाँ भी उनकी बस्ती पर बुलडोज़र चलाते हैं ! उनकी ज़मीने छीन कर बनाए कारखाने में काम करने जब यह लोग मजदूरी करते हैं और पूरी मजदूरी मांगते हैं तो हमारी लोकतंत्र की पुलिस मजदूरों को पीटती है !
ये कैसी पुलिस है जो कभी गरीब की तरफ होती ही नहीं ? ये कैसी सरकार है जो हमेशा अमीर की ही तरफ रहती है ! ये कैसा लोकतंत्र है जहां देश के सबसे बड़े तबके को ही सताया जा रहा है ! और ये कैसा समाज है जो खुद को सभ्य कहता है पर जिसे यह सब दीखता ही नहीं है ! यह कैसे शिक्षित और सभ्य लोग हैं जिनके लिए क्रिकेट और फ़िल्मी हीरो हीरोइनों की शादी ज्यादा महत्वपूर्ण है और देश में चारों ओर फैले अन्याय की तरफ देखने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हो रही है !
ऐसे में हमें क्या लगता है ? सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा ? माफ़ कीजिये कुछ लोग उधर जंगल में कुछ कानाफूसियाँ कर रहे हैं ! कुछ लोग लड़ने और कुछ बदलने की बात कर रहे हैं !
अब ये आप के ऊपर है की आप इस सब को प्रेम से बदलने के लिए तैयार हो जायेंगे या फिर इंतज़ार करेंगे की लोग खुद ज़बरदस्ती से इसे बदलें ? लेकिन एक बात तो बिलकुल साफ़ है ! आप को शायद किसी बदलाव की कोई ज़रुरत ना हो क्योंकि आप मज़े में हैं ! पर जो तकलीफ में है वह इस हालत को बदलने के लिए ज़रूर बेचैन है !
और हाँ यह लेख किसी कम्युनिस्ट द्वारा नहीं लिखा गया है ! अगर आपका विश्वास किसी गांधी या किसी महापुरुष या किसी धर्म में है तो मैंने जो कुछ भी ऊपर कहा है वह सब आपको आपके धर्म और महापुरुषों की शिक्षाओं में आपको मिल जायेगा !
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