Tuesday, January 17, 2012

आदिवासी इलाकों के शहरी



अभी दिल्ली में में कुछ अफगानी विद्यार्थियों के एक दल से मुलाक़ात हुई ! खूबसूरत मुस्कान वाले चौदह से अठारह साल के गोरे और लाल गालों वाले सुन्दर बच्चे ! अमन और मुहब्बत की बातें कर रहे थे ! मैंने कुछ सवाल किये तो उन्होंने कहा कि अमेरिका जो उनके देश में कर रहा है उसे वहाँ के कबायली अर्थात आदिवासी नापसंद करते हैं लेकिन शहरी मिडिल क्लास के लोग अमरीका के हमले को पसंद करते हैं !
मैं उनकी इस बात् की समानता दंतेवाडा से करने लगा ! दंतेवाडा में जो हथियारबंद फौज़ें वहाँ के खनिजों को लूटने के लिए भेजी गयी हैं उन्हें भी वहाँ के आदिवासी नापसंद करते हैं ! लेकिन शहरों में रहने वाले लोग इस सैन्यकरण का समर्थन करते हैं ! ऐसा क्यों होता है ! और क्या सब जगह ऐसा ही होता है ?
मैंने देश के जितने भी आदिवासी इलाके देखे हैं उसमे आदिवासियों पर होने वाले दमन के विरुद्ध कभी भी कोई स्थानीय शहरी आवाज़ नहीं उठाता ! बल्कि आदिवासियों के लिए आवाज़ उठाने वाले को वहाँ के शहरी पत्रकार, नेता , व्यापारी , सरकारी कर्मचारी देशद्रोही खलनायक के रूप में चित्रित करते हैं ! इसलिए आपको बिनायक या दायमनी के लिए देश में या सारे संसार में समर्थक मिल जायेंगे लेकिन उनके अपने शहर रायपुर या रांची में नहीं !
ऐसा क्यों होता है ! पहला कारण तो आर्थिक है ! आदिवासी के पास जंगल में जीवन के अपने संसाधन हैं ! इसलिए उसे अपने संसाधनों को बचाने के लिए संघर्ष करना ही पड़ता है !इसलिए वो संसाधन लूटने वाली फौजों और उन फौजों को भेजने वाली सरकार के खिलाफ लड़ता है ! लेकिन शहरी व्यक्ति के पास कोई आर्थिक संसाधन नहीं है !उसे तो आदिवासी के संसाधनों से जो उद्योग चलेगा या जो व्यपार होगा उस से ही आय होगी ! इसलिए शहरी व्यक्ति आदिवासी के संसाधनों की लूट को समर्थन देता है ! इसलिए शहरी व्यक्ति लुटेरी फौजों को समर्थन देता है,, संसाधन लूटने वाली राजनीती को समर्थन देता है, स्थानीय पत्रकार लुटेरी व्यवस्था के प्रवक्ता बन जाते हैं ! और फिर इन का सामना होता है किसी ऐसे व्यक्ति से जो होता तो इनके बीच में है लेकिन इस लूट के खिलाफ आवाज़ बुलंद करता है ! वो पूरी लूट की राजनीती को नंगा कर देता है ! वो पूरे शहरी षड्यंत्र का पर्दाफाश कर देता है ! इसलिए एक अकेला मानवाधिकार कार्यकर्त्ता पूरे सत्ता के किले की नीव को हिला देता है !
अब आप ये उम्मीद नहीं कर सकते कि ये लुटेरी ताकतें उनका पर्दाफाश करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्त्ता को बख्श देंगी ! वो ऐसा कर ही नहीं सकतीं ! क्योंकि ये लूट को होने नही देगा ! और लूट बंद हुई तो शहरी खायेंगे क्या ! अपना तो कोई उत्पादन है नहीं ! सब कुछ तो लूट कर ही लाया गया है !लूट पर तो शहर जिंदा हैं ! इसलिए बिनायक को उम्रकैद में डालना ज़रूरी है ! कोपा लिंगा,सोनी को जेल में डालना ज़रूरी है ! दायमनी बरला को डराना ज़रूरी है !ग्रामीण आदिवासी के संसाधनों की इस लूट के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले हज़ारों कार्यकर्ता आज जेलों में हैं ! और इस लूट के खिलाफ लड़ने वाली ताकतें देश की प्रधान मंत्री के द्वारा सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताई जा रही है ! देश की ज़्यादातर फौजों को सीमा से हटा कर इन आदिवासी लूट क्षेत्रों में भेजा जा रहा है !
हम सब को जानना चाहिए कि जैसे ही कोई कम्पनी और सरकार खनिजों से भरी ज़मीन का एम् ओ यू पर हस्ताक्षर करते हैं वैसे ही वह कम्पनी अंतर्राष्ट्रीय शेयर बाज़ार में अपने शेयर बेच देती है ! अब जिस आदिवासी ज़मीन के लिए दुनिया के ताकतवर लोगों ने अरबों रूपये दाँव पर लगा दिये हैं वो क्या अपने रूपये डूबने देंगे ? ये पैसा लगाने वाले ताकतवर लोग दुनिया के बैंकों के मालिक हैं ये वालस्ट्रीट के मालिक हैं ये अमेरिकी सरकार से लेकर दुनिया की छोटे से छोटे देशों की सरकार को चलाते हैं ! देश की हर राजनैतिक पार्टी इनके पैसे से चुनाव लड़ती है !यही आर्थिक दैत्य दुनिया के हर युद्ध की जगह और समय तय करते हैं ! हर युद्ध इनके फायदे के लिए लड़ा जाता है ! हर देश का बजट इनके कहने से बनाया जाता है !
यही ताकतें आपके टीवी और अखबार की मालिक हैं ! आप वही जानते और मानते हैं जो ये ताकतें चाहती हैं ! आपके धर्म गुरु भी इन्ही आर्थिक आकाओं के गुलाम हैं ! आप इन धनिकों के खिलाफ न हों जाएँ इसलिए आपके धर्मगुरु आपको आपके आसपास की वास्तविकता से काट कर स्वर्ग नर्क की कल्पनाओं में उलझा कर रखते हैं ! यही आर्थिक ताकतें आपके बच्चों के शिक्षण संस्थान चलाते हैं ! इसलिए आपका बच्चा वही पढता है जो इन आर्थिक ताकतों का व्यापार चलाने के लिए आवश्यक है !
इसलिए आप ध्यान से देखेंगे तो पायेंगे कि आज ग्रामीण आदिवासी की लूट को समर्थन देने वाली ताकतें धार्मिक हैं , राष्ट्रवादी हैं , सेना और पुलिस भक्त हैं , सरकार को ही लोकतंत्र और राष्ट्र मानने वाली हैं और शहरी हैं !
ये लड़ाई अभी और क्रूर और व्यापक होगी ! और इन शक्तियों का प्रतिरोध भी उतना ही व्यापक और तीव्र होगा !

2 comments:

  1. हिमांशुजी यह शहरी वर्ग यदि आदिवासियों के सवालो की और ध्यान नहीं देता तो कोई बात नहीं, हमें अपने काम करते रहना है. आज देशभक्ति का पैमाना तिरंगा हाथ में लेकर वन्दे मातरम कहने से है. मुझे यह समझ नहीं आता की जिन लोगो को आज भी मूलभूत आवश्यकताएं नसीब नहीं हुए वो कैसे मेरा भारत महँ कहें. एक सचिन तेंदुलकर, अमिताभ बच्चन या कल्पना चावला होने से तो हमारे लोगो का मानव विकास सूचकांक नहीं बढ़ जाता. आज की हुकूमते मीडिया के जरिये लोगो को दिग्भ्रमित कर रही हैं और उसके जरिये व्यक्तिगत उपलब्धियों को देश के उप्लाब्दिह्याँ बता कर पूरे बहस को बदल रहे हैं. जैसे विदेशों में रहने वाले भारतीये मूल के लोग वहां पैसा कमाने गए लेकिन आज हम उनको देश की शान कहते है और सर्कार उनको छूट देने के लिए तैयार है. इसी तरह जो लोग वोट नहीं देते वो हमारे लोकतंत्र को नियंत्रण कर रहे हैं.

    हकीकत यह है हिमांशुजी की शहरों का यह संभ्रांत वर्ग बहुत शातिर है और घोर जातिवाद से ग्रस्त है. यह गांव के अभिजात्य वर्ग का ही एक्सटेंसन है और जाति और वर्ग के सर्वोच्चता को बनाये रखना चाहता है. यही वर्ग आदिवासियों का नेतृत्व भी करना चाहता है ताकि उसके प्रश्नों पर अपने चश्मे का नजरिया चढ़ा के प्रस्तुत किया जा सके. आप जानते होंगे किस तरीके से मंडल के धूर विरोधी लोग नर्मद्दा के आन्दोलन में स्वैच्छिक शरीक हो गए. यह इसलिए होता है के मंडल की ताकतों ने समझ लिया की जब तक अपना इतिहास और अपने संस्कृति को स्वयं दोबारा से नहीं लिखेंगे यथास्तिथिवादी ताकते उनको समाप्त कर देंगी. इसलिए यह आवश्यक है के आदिवासी स्वयं का नेतृत्व करे. हमने देखा की आदिवासी सभी के प्रयोगस्थल बन गए. सरकारी कंपनिया, हिंदुत्व की शक्तिया, ईसाई मिसोनारियां और बाद में माओवादी के नाम पर भी आदिवासी केवल हनुमान बने रहे. हम लोगो ने उनका नेतृत्व विकसित नहीं होने दिया. इसलिए सामाजिक काम के लिए आदिवासी इलाको में 'टूरिस्म' करके आना शहरी सम्ब्रांत वर्ग का हिस्सा बन गया. आदिवासी संस्कृति के नाम पर उनके शोसन को सही कहने वालो की कमी नहीं थी जो नहीं चाहते के उनके बच्चे भी स्कूल जाएँ और उनको भी अच्चा स्वस्थ्य मिले. लालची उद्योगपतियों ने विकास ने नाम पर उनका दोहन किया और सारे जंगल और जमीन लूट लिए. सरकार केवल बिचौलिए की भूमिका में रही और उसका काम इन उद्योगपतियों को साड़ी सुविधाएँ मुहैया करने में थी चाहे उसके लिए इन आदिवासियों की जान भी क्यों न चली जाये.

    अतः ऐसे में जब हिमांशु जैसे लोग अपना जीवन दांव पे लगा कर आदिवासियों में नयी चेतना भरते हैं और उन्हें नयी आवाज़ देते हैं तो वो सत्ता के दलालों को कैसे पसंद आएगी. सत्ता के नशे में चूर ऐसे लोग अलग अलग खेल खेलते हैं. कही पर जाति का सवाल खड़ा करेंगे और कहीं पे नागरिकता का प्रश्न, लेकिन जब एक बार विचारो की क्रांति ने बात फैला दी तो इन सत्ताधारियों को अपने रस्ते बदलने पड़ेंगे. हिमांशुजी, मैं जानता हूँ, ऐसे काम में कितने दर्द छीपे होते हैं और जो दर्द आपके सीने में है वोह मेरे सीने मैं भी है और हमारे जैसे बहुत से लोगो के सीने मैं है. इसलिए जरुरत है इसको पहचानाने की और लगातार इस प्रकार की ताकतों को मजबूत करने की. सरकारे चाहे कुच्छ करें, लोगो की संस्कृति और उनके संशाधनो को लूटने का अधिकार उन्हें किसी ने नहीं दिया. मुझे उम्मीद है के आप अपने संषर्ष को जारी रखेंगे.. यह लड़ाई एक विचार की लड़ाई है और व्यवस्था की भी. लोकतंत्र को थोकतंत्र में तब्दील करने वाले लोगो को समय आने पर जनता जवाब दे देगी. मैं जानता हूँ की भारत की इस जनता में अपार संभावनाएं है वह सारे खेल जानती है और समय आने पर अपने प्रश्नों के उत्तर ढूंढ लेगी. हमारे जैसे लोग तो उत्प्रेरक हैं और उत्प्रेरक को अपनी भूमिका निभाते रहना चाहिए ताकि समाज में सकारात्मक बदलाव आ सके और हम एक सभ्य समाज कहलाने के काबिल बन सके जहाँ सबको अपने तरीके से जीने का अधिकार हो और जहा लूटेरे गिद्ध की दृष्टि लगाये गरीबो को खाने के तैयार न बैठे हों, जहाँ सरकार सबसे हासिये पे बैठे व्यक्ति की सुरक्षा कर सके और जहाँ अपनी अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता हो.. जहाँ धर्म के नाम पर लूट और गूंदागर्दी को देश और समाज वर्दास्त न करे.. इसलिए ऐसे समाज बनाने के लिए उत्प्रेरको को अपना काम करना पड़ेगा.. लड़ाई लम्बी है लेकिन असंभव नहीं है.

    विद्या भूषण रावत

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  2. लूट पर तो शहर जिंदा हैं !

    ... ... बस इतना काफी है!

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