इन आदिवासियों का कसूर क्या है ?
दिनॉक 23.05.07 को ND TV नई दिल्ली से कुछ पत्रकार आए। उन्होने हिमांशु कुमार जी, संचालक वनवासी चेतना आश्रम, कंवलनार दन्तेवाड़ा (स्वयं सेवी संस्था) एवं मुझसे वर्तमान में नक्सलवाद एवं सलवा जुडुम के कारण ग्रामीण आदिवासियों के बीच में पैदा हो रही दिक्कतों के विषय में जानना चाहा। इस पर हम लोगों ने उन्हे ग्रामीण आदिवासियों की दिक्कतों के विषय में जानने हेतु कुछ शिविरों एवं ग्रामों में लोगों से भेंट करने की सलाह दी। इस पर उन्होने दो दलों का निर्माण किया। एक दल शिविरों में लोगों से भेंट करने के लिए एवं दूसरा दल ग्रामो में लोगों से भेंट करने के लिए। शिविरों में लोगों से भेंट करने वाला दल दोरनापाल, कोंटा, ऐर्राबोर गया। अब सवाल यह था कि ग्रामों में लोगों से भेंट करने वाले दल को कहॉ ले जाया जाए। उसी वक्त मुझे ख्याल आया कि मुझे यूनीसेफ, छत्तीसगढ़ द्वारा ग्रामों में रह रहे लोगों की, विशेषकर महिलाओं एवं बच्चों की स्थिति की जानकारी प्राप्त करने के लिए इन्द्रावती नदी के पार जाना है। अत: ग्रामों का भेंट करने वाले दल की ज़िम्मेदारी मैंने ले ली। ND TV के इस दल को हमने पुलिस अधीक्षक दक्षिण बस्तर, दन्तेवाड़ा से भेंट कर इस बात की जानकारी देने को कहा कि वे इन्द्रावती नदी के पार के गॉवों में जाकर वहॉ पर रह रहे लोगों की स्थिति का जायजा लेना चाहते हैं। इस पर उन्होने बांगापाल के थाना प्रभारी को इसकी जानकारी देते हुए कहा की उन्हे नदी पार जाने दिया जाए। हम लोग दूसरे दिन अर्थात् 24.05.07 को सुबह 5:30 बजे दन्तेवाड़ा से निकले और सुबह 7:00 बजे हमने इन्द्रावती नदी को पार किया। इस दौरान हमने गौर किया कि कुछ सहमी हुई ऑखें हमें देख रही हैं। इस दल में ND TV से आए हुए साथी श्री सुधीर रंजन सेन एवं कैमरा मेन श्री दिवाकर तथा कोपाराम कुंजाम एवं मैं स्वयं थे।
ग्राम भेंट का प्रतिवेदन (ग्रामीणों की स्थिति एवं उनके वक्तव्य):-जब हम इन्द्रावती के नदी के किनारे लगा हुआ गॉव चिन्गेर पहुंचे तो हमने देखा कि कुछ छोटे-छोटे बच्चे एवं महिलाऍ आम पेड़ों के नीचे एकत्र होकर आम बिन रही हैं। जब हम उनके पास पहुंचने लगे तो उन्होने हमें देख लिया एवं जंगल की तरफ भागने लगे। हमने स्थानीय बोली में उनसे पुकार कर कहा कि रूक जाइये, हम आपसे कुछ नहीं कहेंगे। इस पर भी वे नहीं रूके। हमने खाली पड़े हुए घरों में जाकर यह पता लगाने की कोशिश की कि शायद कोई व्यक्ति मिल जाए। हमारे प्रयास से हमें एक घर में दो व्ध्द पुरूष एवं एक वृध्द महिला मिल गई, वे गंभीर रूप से बीमार थे। हमने देखा कि एक हाथ एवं अण्डकोष में बुरी तरह से खुजली हो गई, साथ ही उसके हाथ एवं पैरों में फोड़े हो गये हैं, जिससे वह चल फिर पाने में भी असक्षम है। उसने हम लोगों को बताया कि पिछले छह महीने वह इस गंभीर स्थिति से गुजर रहा है। दूसरे व्यक्ति ने बताया की उसे भी भयंकर खुजली हो गई है एवं वह इसके कारण से चल फिर नहीं सक रहा है। उन लोगों से भोजन हेतु सामग्री की उपलब्धता के बारे में पूछा तो उन्होने बताया कि उनके पास अनाज नहीं है, वर्तमान में वे आसपास के जंगल-झाड़ियों से प्राप्त कंदमूल एवं अन्य प्रकार के फलों का सेवन कर अपने जान की रक्षा किये हुए हैं। जब उनसे पूछा गया कि वे राशन एवं नमक तेल इत्यादि लेने तुमनार बाज़ार क्यों नहीं जाते हैं, इस पर उन्होने बताया कि ''हम इन सामग्रियों को लेने जाना तो चाहते हैं, परन्तु नेलसनार एवं कासोली शिविरों में वास कर रहे हमारे एवं आसपास के ग्रामों के निवासी नदी पार नहीं करने देते हैं एवं यदि कोई इस प्रकार का प्रयास करता है तो उसे पीट-पीटकर बेदम कर दिया जाता है और शिविर में ले जाकर पटक दिया जाता है व उसे वापस आने नहीं दिया जाता है। कभी-कभी उनका कत्ल भी कर दिया जाता है। ऐसे अनेक कत्ल सलवा जुडुम, विशेष पुलिस अधिकारी एवं सुरक्षा कर्मियों के द्वारा किये गये हैं।'' जब हमने उन वृध्दों से जंगल की ओर भाग खड़े हुए औरतों एवं बच्चों के विषय में पूछा तो बताया कि वे कासोली शिविर से वापस भाग कर आए हुए हैं एवं नदी पार से कोई भी व्यक्ति आता है तो हम सभी भाग खड़े होते हैं, क्योंकि वह सलवा जुडुम या सुरक्षा कर्मियों से संबंधित हो सकता है और यदि कोई भी व्यक्ति उन लोगों के हाथ में आता है तो वे उसकी बुरी तरह से पिटाई करते हैं एवं शिविर में लेकर चले जाते हैं। वे सभी अब शिविर में वापस नहीं जाना चाहते हैं, इसीलिए डरकर भाग जाते हैं।
इसके पश्चात् हम लोग आगे बढ़कर ऐहकेली ग्राम पहुंचे वहॉ पर हमें एक अंधे के अलावा कोई नहीं मिला। हमारे पास समय की कमी थी, इसी वज़ह से हम लोग तेजी से चलते हुए ओड़सा नामक ग्राम पहुंचे । वहॉ पर हमें बहुत से लोग मिले वे काफी डरे हुए थे, परन्तु हमने उन्हे अपने आने का उद्देश्य बताया तो वे कुछ सामान्य हुए। फिर उन्होने अपनी बात हमारे सामने रखी। उसमें से एक-दो लोग मेरे पूर्व परिचय के भी मिले। महिलाओं ने बताया कि उनके पास खाने-पीने का सामान नहीं है, उनके बच्चे बीमार हो जाते हैं तो उन्हे दवाई नहीं मिल पाती है और वे मर जाते हैं, ग्रामीणों ने बताया कि ग्राम निराम में काफी सारे लोग रहते हैं और हमें उनके पास जाना चाहिए और वहॉ पर सारी तकलीफों के विषय में आसानी से चर्चा की जा सकेगी। इस पर हम लोग पैदल चलते हुए वहॉ पर पहॅुचे, वहॉ पर काफी सारे लोग हमें पहले से ही बैठे हुए मिले। लोगों ने बड़े ही आदर से हम चारों को बैठाया। हमने उनसे शासन द्वारा प्रदान की जाने वाली सुविधाओं के विषय में पूछा तो उन्होने बताया कि यहॉ पर पिछले तीन वर्षों से किसी भी प्रकार की शासकीय सुविधाऍ शासन द्वारा नहीं प्रदान की जा रही हैं। तीन वर्ष पूर्व तक यहॉ पर स्कूल एवं ऑगनबाड़ी केंद्र चला करते थे, परन्तु वे भी नियमित नहीं चलते थे। इसी प्रकार स्वास्थ्य कार्यकर्ता भी कभी-कभी आ जाया करते थे, इससे कम से कम हमें एवं हमारे बच्चों को थोड़ी बहुत राहत मिल जाया करती थी। परन्तु वर्तमान में सलवा जुडुम के शुरू होते ही ये सारी सुविधाऍ शासन द्वारा बंद कर दी गई हैं। ग्रामीण कहते हैं कि उनकी समझ में नहीं आया कि ये सारी सुविधाऍ शासन द्वारा क्यों बंद कर दी गई हैं, जबकि इन कार्यक्रमों के संचालन में कभी भी किसी के द्वारा कोई आपत्ति दर्ज नहीं की गई है। इन ग्रामों में रह रहे ग्रामीणों का कहना है कि जब सलवा जुडुम शुरू हुआ था, उस समय ज़ोर ज़बरदस्ती करके चिन्गेर, ऐहकेली, सतवा, बांगोली इत्यादि ग्रामों के समस्त ग्रामीणों को सलवा जुडुम के नेताओं एवं फोर्स द्वारा ले जाया गया, परन्तु हमने सोचा कि यदि यहॉ से वहॉ चले गये तो फिर हम न तो खेती-बाड़ी कर सकेंगे और न ही वनोपज संग्रहण कर सकेंगे, जोकि हमारे जीवन-यापन के मूल साधन हैं। इससे हम सभी वहॉ भूखों मर जाऍगे । ग्रामीणों ने इस बात का वक्तव्य दिया है कि उनके जीवन निर्वहन के लिए अनाज, नमक, तेल, मिर्च, कपड़ा इत्यादि साधनों को ठोठा है, क्योंकि यदि वे नदी पार करके गीदम या तुमनार बाजार जाते हैं, तो उन्हे सलवा जुडुम के सदस्यों एवं फोर्स द्वारा पकड़कर बुरी तरह पीटा जाता है और शिविर में ले जाकर फेंक दिया जाता है या फिर कत्ल कर दिया जाता है, इसीलिए वे बाज़ार जाते ही नहीं हैं। यदि उन्हे जीवन निर्वहन के इन साधनों की आवश्यकता पड़ती है तो एक अन्य बाजार जोकि 80 किमी. दूर है, वहॉ पैदल जाते हैं, इसमें उन्हे अपने तीन दिन गॅवाने पड़ते हैं।
ग्रामीणों का यह भी कहना था कि सलवा जुडुम के चलते घरेलू परिवारों के बीच खाई पैदा हो गई है, आज की स्थिति में भाई-भाई को नहीं पहचानता, वे एक दूसरे को शत्रु के दृष्टिकोण से देखते हैं। हमारे सारे सांस्कृतिक व्यवस्थाऍ, परंपराऍ, तीज-त्यौहार बंद हो गये हैं और इससे आदिवासियों की वर्षों से संचित एवं पोषित सांस्कृतिक विरासत को गहरा आघात पहुंचा है। ग्रामीणों के अनुसार अब न तो उनके ग्रामों मेला होता है और न ही कोई त्यौहार। उन्होने बताया कि पिछले तीन सालों में इस क्षेत्र के 30 से भी अधिक ग्रामों में भयवश कोई शादी नहीं हुई।
ग्रामीणों ने यह भी बताया कि सलवा जुडुम के सदस्य, विशेष पुलिस अधिकारी, जिनमें से अधिकतर भूतपूर्व संघम सदस्य हैं, केंद्रीय रिज़र्व फोर्स तथा पुलिस के लोग समय-समय पर आते हैं और कुछ लोगों को जान से मार डालते हैं एवं कुछ को पकड़ कर ले जाते हैं, हमें अपनी जान बचाकर जंगल में भाग जाना पड़ता है, इन लोगों के द्वारा जवान लड़कियों के साथ बलात्कार के भी अनेक उदाहरण हैं। हाल ही में ओड़सा ग्राम के एक लड़की के साथ भी इनके द्वारा बलात्कार किया गया है। इसके अलावा जब ये लो गॉवों में आते हैं और यदि कोई छोटा बच्चा मिल जाता है तो उसे पैर से पकड़कर जमीन पर पटककर मार डाला जाता है।
ग्राम भेंटकर्ता का अभिमत:- जब मै, कोपाराम कुंजाम एवं मेरे अन्य दो साथी जोकि ND TV नई दिल्ली से आए हुए थे, ने जाकर ग्रामीणों से भेंट किया एवं उनसे विभिन्न विषयों पर चर्चा किया तो यह बात खुलकर आई कि लोग वर्तमान परिस्थितियों में अत्यंत दुखी हैं एवं गंभीर रोगों के शिकार हैं। जिस तरह से वे जी रहे हैं, उससे बेहतर तो जानवरों की जिन्दगी है। उनके पहनने के कपड़े चीथड़े हो गये हैं, उनके पास खाने को अनाज, दाल, नमक, तेल, हल्दी, मिर्च इत्यादि सामग्रियों का पूर्णाभाव है। सुरक्षाकर्मी एवं सलवा जुडुम के सदस्य समय-समय पर इन ग्रामों में नक्सली उन्मूलन ऑपरेशन के नाम पर जाते हैं और मासूम ग्रामीण आदिवासियों की हत्या कर देते हैं, जवान बालिकाओं एवं महिलाओं के साथ दर्ुव्यवहार करते हैं एवं उनके बच्चों को जान से मार डालने की घटनाओं को अंजाम देते हैं। लोगों को खुजली, मलेरिया एवं अन्य प्रकार की गंभीर बीमारियों ने घेर लिया है और उनके इलाज के लिए उनके पास किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं है। इसके अलावा उन्हे किसी भी प्रकार की मूलभूत सुविधा प्रदान नहीं की गई है, लोग जंगल से कंदमूल एवं मौसम फल लाकर किसी तरह अपने जीवन को बचाये हुए हैं, उनके पास पीने के पानी का भी नितांत अभाव है, वे गंदे डबरों का पानी पीने और नहाने के लिए उपयोग कर रहे हैं, इससे भी अनेक बीमारियॉ उनमें फैली हुई हैं, जिससे वे असमय मृत्यु के गाल में समाते जा रहे हैं, इससे आदिवासियों की जनसंख्या में लगातार कमी आ रही है।
मेरे देखे से जो चीज़ मेरी समझ में आई वह यह कि लोगों को सलवा जुडुम में जुड़कर कार्य न करने की सजा उन्हे शासन समर्थित सलवा जुडुम एवं सुरक्षाकर्मियों के द्वारा उनकी जीने की मौलिक स्वतंत्रता छीन कर दी गई है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना रहने, जीने, कार्य करने की स्वतंत्रता हमारे संविधान द्वारा दी गई है और प्रत्येक व्यक्ति जहॉ चाहे वहॉ रह सकता है, अपना मनपसंद कार्य चुन सकता है। सलवा जुडुम के सदस्यों एवं सुरक्षाकर्मियों के द्वारा जिस तरह से मासूम आदिवासियों का रसद रोका गया है, उनका कत्ल किया जा रहा है, इससे ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कि अब इस देश में संविधान नामक की कोई चीज़ ही नहीं बची। ऐसा व्यवहार दो दुश्मन देशों के बीच में भी नहीं होता हैं। दुश्मनी की भी कुछ मर्यादाएॅ होती हैं, परन्तु यहॉ पर दुश्मनी नहीं दिखती, वरन् ऐसा लगता है, जैसे कि मनुष्यों के द्वारा जंगली जानवरों का शिकार किया जा रहा है। उपरोक्त समस्त घटनाएॅ जिला प्रशासन की देखरेख व सहयोग से हो रही हैं। प्रशासन का यह चेहरा शायद ऐतिहासिक ही होगा कि वह जनता और जनता के बीच फर्क करते हुए कार्य कर रही है और इसे राज्य शासन की शाबाशी प्राप्त है।
जब हम लोग इन ग्रामों के ग्रामीणों से चर्चा कर रहे थे, वे बड़ी ही आशा भरी नज़रों से हमें देखते हुए अपनी तकलीफों का हिसाब दे रहे थे। मुझे लगता है कि अगर मैं अपने घर में रहकर अपना दैनिक जीवन जीना चाहता हूँ, तो यह कोई अपराध नहीं है। इसके लिए मेरा हुक्का-पानी बन्द नहीं किया जा सकता।
उपरोक्त परिस्थितियों के संबंध में मेरा कथन है कि एक तरफ तो हम सभ्य समाज के लोग इन आदिवासियों को अपने पक्ष में करने के पक्षधर हैं और दूसरी तरफ हम उनके साथ एक आम मानव के समान भी व्यवहार नहीं करते, साथ ही उन्हे संविधान प्रदत्त अधिकारों से महरूम कर देते हैं, उन पर जान लेवा हमला करते हैं, उनकी बहू-बेटियों की अस्मत लूटते हैं और उनसे कहते हैं कि ''आइये हम मिलकर नक्सलवाद का सामना करें''। एक तरफ तो हम उनके साथ जानवरों से बद्तर सलूक करते हैं और दूसरी तरफ उनसे हमारा अनुगमन करने की अपेक्षा रखते हैं। क्या हम स्वयं से यह सवाल पूछेंगे कि ''यदि हमारे साथ कोई इस प्रकार का अमानवीय बर्ताव करे तो क्या हम किसी भी परिस्थिति में उसका साथ देने को तैयार हो पाऍगे ?'' शायद प्रत्येक व्यक्ति का जवाब ना में ही होगा, जिसमें थोड़ी बहुत भी सोच सकने की क्षमता ने सिर उठाया है।
इसके अलावा एक तथ्य पर और भी सांख्यिकीय ऑकड़ों की जानकारी बढ़ाने के लिए हमें सोचनी चाहिए। वह यह कि जिला प्रशासन के अनुसार उसने 644 ग्रामों के लगभग 50 हज़ार लोगों को शिविरों में बसाया है। अविभाजित दक्षिण बस्तर, दन्तेवाड़ा में लगभग 1300 ग्राम होते हैं और इन ग्रामो की आबादी लगभग 7 लाख बैठती है। उपरोक्त 644 ग्राम लगभग जिले के आधे ग्राम हैं, जिनकी आबादी भी लगभग जिले के आबादी की आधी होनी चाहिए, परन्तु शिविरों की आबादी लगभग 50 हज़ार है। इससे कुछ सवाल उठते हैं, जिन पर समस्त बुध्दिजीवियों को गंभीरतापूर्वक सोच लेना चाहिए। क्या 644 ग्रामों की आबादी मात्र 50 हज़ार है ?, जिन्हे कि शासन ने शिविरों में बसाया हुआ है। यदि नही तो क्या शासन ने कभी इस बात पर विचार किया कि शेष आबादी का क्या हो रहा है या यह आबादी कहॉ रह रही है ? यदि नही ंतो क्यों ? उपरोक्त प्रश्नों की छानबीन के साथ प्रत्येक लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थक को इन ग्रामीणों की समस्याओं के समाधान हेतु खड़ा होना चाहिए और तब कहीं इन नि:स्वर लोगों को इनका सुर मिलना संभव हो पायेगा, अन्यथा ये तो वैसे ही कुछ सालों के और मेहमान हैं।
लिंगू मरकाम
ग्राम भेंटकर्ता एवं प्रतिवेदक
दिनॉक 24.05.07 स्थान: कंवलनार, दन्तेवाड़ा
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