मैं जब बस्तर में था तो आदिवासी अपनी मरी गाय की खाल चालीस या पचास रूपये में व्यापारी को बेच देते थे ၊
उसे कच्चा चमड़ा कहा जाता है
उसे कच्चा चमड़ा कहा जाता है
हमने अपने आश्रम मे विज्ञान एवं प्रौद्योगिकि विभाग की मदद से चमड़ा पकानें का एक कार्यक्रम चलाया था ၊
इस कार्यक्रम में हम आदिवासी युवाओं को अपनी मरी गाय के चमड़े को पकाने यानी टैनिंग करने की तकनीक बताते थे ၊
पकाया हुआ चमड़ा 4०० रू के लगभग बिकता था
आदिवासी युवकों के साथ मैनें भी मरी गाय का चमड़ा छीलना और उसे पकाना सीख लिया
अब गुजरात में हिंदुत्ववादी लोगों ने गाय के नाम पर वोट बटोरने के लिये दलित युवाओं पर जो हमला किया
और उसके बाद जिस तरह दलित भाइयों नें मरी हुई गाय लाकर कलेक्टर व अन्य अधिकारियों के कार्यालय में डाल दी है
मैं दलित युवकों के इस कदम का समर्थन करता हूँ
मैं ब्राह्मण युवकों को मरी गाय का चमड़ा उतारना सिखाने का प्रशिक्षण देने के लिये तैयार हूं
अगर गाय हम सबकी माता है तो माता की सेवा में शर्म कैसी ?
इसी तरह टट्टी सफाई , नालियों की सफाई , गटर साफ करना , सड़कों पर झाडू लगाने का काम भी ब्राह्मणों , ठाकुरों , बनियों को मिल जुल कर करना चाहिये
सरकार के स्वच्छता अभियान में गांधी जी का चश्मा प्रतीक चिन्ह रूप में लगाया हुआ है ၊
तो भाई गांधी तो संडास सफाई का काम खुद करते थे
प्रतीक गांधी के इस्तेमाल करोगे और काम गोडसे वाले करोगे
ये नहीं चलेगा
संघ को हर शहर में एक चमड़ा शोधन केन्द्र बना देना चाहिये
जहाँ संघ के स्वयंसेवक गो माता का चमड़ा उतारें
स्वयंसेवकों को चमड़ा उतारने का प्रशिक्षण देने के लिये मैं तैयार हूँ ,
आइये भारत को समरस राष्ट्र बनायें
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