बड़ौदा मां पिताजी के पास आया हूँ ,
पिताजी नें कहा चलो अहमदाबाद साबरमती गांधी आश्रम जाना है
वहाँ अपने चरखे पर हाथ से काता हुआ सूत देकर आना है
गांधी आश्रम से खादी संस्था के एक मित्र इस सूत का कपड़ा जुलाहे से बुनवा कर दे देंगे
पिताजी और मैं अपने हाथ से काते सूत की ही खादी पहनते हैं
हम बाजार से कपड़ा नहीं खरीदते
कपास की कीमत में कपड़ा बन जाता है
अगर कोई दिन में आधा घन्टा चरखा चलाता है
तो साल भर पहनने का कपड़ा मुफ्त में पड़ता है
गांधी का कहना था कि जब हम बिना उत्पादन किये उपभोग करेंगे
तो हम गुलाम हो जायेंगे
आज हम बड़ी कंपनियों के गुलाम बन चुके हैं
साबुन , कागज , तेल , चप्पल , कपड़ा , गांव में नहीं बनाया जा सकता था क्या ?
आज फावड़ा तक टाटा बनाता है
अपनी गुलामी हम खुद लाये हैं
इसमें से निकलने का रास्ता भी खुद को ही खोजना होगा
कोई अवतार नहीं आयेगा
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