मैं उस सभ्यता का वंशज हूं
जिसकी शुरुआत मे एक औरत की जली हुई लाश है
जो मोहनजोदडो के तालाब की आखरी सीढ़ी पर पडी है
और जो सभ्यता वर्तमान मे
एक औरत की योनी मे पत्थर भरने
को राष्ट्रीय गौरव मानती है
मेरी सभ्यता की सारी पवित्र ऋचाओं
का जन्म अनार्य असुरों
के वध के उल्लास के क्षणों मे हुआ
मेरा धर्म युद्ध का धर्म है
मेरा धर्मघोष ही जय है
जय हो जय हो जय हो
मेरा धर्मघोष अगणित शत्रुओं के
शवों के बीच से उठा है
युद्ध मे जय
शत्रु की मृत्यु से उपजी जय मेरा धर्म वाक्य है
मेरा ईश्वर
स्वर्ण मंडित
शस्त्रधारी
विजेता
वधकर्ता
मेरी सभ्यता मे
शूद्र - श्रमिक
धनिक - श्रेष्ठ
वसुंधरा वीर भोग्या है
और वीरता
शत्रु के वध से निश्चित होती है
हम
स्वर्ण प्रिय
भोग प्रिय
वध प्रिय
मैं वहाँ से बोल रहा हूं जहां
एक आदिवासी माँ की हत्या करने के बाद
उसके डेढ़ साल के बच्चे का हाथ काटने के बाद
हमारी सेनाए विजय उत्सव मनाती हैं
और हमारे शासक
उन सेनाओं को पुरस्कृत करते हैं
और हम
अपनी सेनाओ पर गर्व करते हैं
हम लुटेरों पर गर्व करते हैं
हम हत्यारों पर गर्व करते हैं
हम शील हर्ताओं पर गर्व करते हैं
हम इन पर गर्व करने वाली अपनी
संस्कृति पर गर्व करते हैं
जय हो जय हो जय हो
हमारी जय हो
ये कटे हाथ
ReplyDeleteकल गला काट
रखेंगे बीच
बजार हाट
इज्जत का मोल वसूलेंगे
हर खून का बदला हम लेंगे |
कविता ,वर्तमान व्यवस्था ,संस्कृति और सभ्यता पर एक गंभीर आरोप है और जिसकी दलीलों का कोई जवाब नहीं ! ढकी -मुँदी सच्चाई से पर्दे उतारती है कविता !
Deleteविद्रोही जी की कविता लगती है!
ReplyDeleteहाल ही में मैंने लिखा था http://www.facebook.com/ajax/sharer/?s=22&appid=25554907596&p%5B0%5D=100002936459065&p%5B1%5D=201297246644822
पर कि हम इस हाल पर क्या गर्व करें!
आंख में उंगली डाल के सच दिखाती है यह कविता.
ReplyDeleteसच्चाई का आईना दिखती कविता ......
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